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समय भी पुरुष

सुना है समय हर जख्म भर देता है तुम्हे भी तो एक जख्म मिला था तुम सिसक के रोई थी आँखों में कुछ बूँदें ठहर कर पलकों से नीचें ढलक गयीं थी बेसुध सी तुम वक़्त का ख्याल भी नहीं रख पाई थी तुम्हारे दोनों हाथ खाली थे सिवाय हवा के उनमे कुछ कैद नहीं रह पाया था हर रिश्ता तो दूर ही था लोग कहते रहे वक़्त हर जख्म भर देगा पर क्या भर गया हर जख्म ? नहीं ना शायद समय भी पुरुष है ।

खेलना है तो खेलो

हमारे देश में कहा जाता है कि राष्ट्रीय खेल हाकी है...लेकिन ऐसा लगता नहीं है.....उम्र के इस पड़ाव पर हूँ कि अपने देश में किसी खेल को लेकर कोई प्रतिक्रिया दे सकूं...... मेरा यकीन करिए हाकी को हम सब जिस जगह लेकर आयें हैं वो वहीँ है....वहां से कहीं नहीं गयी....हम का मतलब है हम...सरकार नहीं...सरकार और हाकी इंडिया को दोष शायद हमलोगों को नहीं देना चाहिए....मुझे याद आता है कि जिंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं किया करती....लेकिन हमने तो हाकी को दशकों इंतज़ार करा दिया.....आखिर बेचारी हाकी यहाँ आ गयी तो इसमें दोष किसका.....अब आप ही सोचिये कि हममे में से कितने लोग अपने घर के बच्चों को हाकी कि स्टिक पकड़ने देते हैं.....हाँ बचपन में बैट और गेंद का गिफ्ट अपने घर के बच्चों को ज़रूर देते हैं...कुछ लोग तो यूं ही दे देते हैं कुछ यह सोच कर कि बड़ा होकर कहीं क्रिकेटर बन गया तो घर में पैसे ही पैसे होंगे......अब ऐसे में गरीब देश का अमीर खेल क्रिकेट आगे जायेगा कि हाकी.....हाकी इंडिया ने जब देश के खिलाडियों को खेलने के लिए पैसा ना देने कि बात कही तो साथ ही यह भी बोला कि खेलना है तो देश हित में खेलें...मैं थोड़ा...

आईये जश्न मनाये इडियट होने का

मुझे यह तो नहीं पता कि मै यह क्यों लिख रहा हूँ...लेकिन मन कर रहा है सो लिख रहा हूँ....हाल ही में एक फिल्म देखी.. थ्री इडियट ...बहुत सुना था इस फिल्म के बारे में....या यह कहूँ कि इस फिल्म के बारे में सुनाया बहुत गया था....तीन घंटे कि इस फिल्म में ऐसा एक बार भी महसूस नहीं हुआ कि जो सुना था वही देख रहा हूँ......दरअसल एक साधारण सी कहानी को कोई बहुत ख़ास तरीके के बिना भी फिल्माए बगैर बेच दिया गया था.....इस फिल्म को देखने का मुझे जब मौका मिला तो फिल्म को रिलीज़ हुए दो हफ्ते हो चुके थे.....लेकिन इसके बाद भी मल्टीप्लेक्स में इसे देख पाना मेरे लिए संभव नहीं था...कारण था बॉक्स ऑफिस के बाहर लगी लम्बी लाइन....लिहाजा मैं एक सिंगल स्क्रीन सिनेमा में पहुंचा...भीड़ तो वहां भी बहुत थी....भीड़ देख के मुझे लगा कि मैंने देर कर दी.....मन में ख्याल आया कि फिल्म को देखने के बाद यही सोचूंगा कि ओह इतनी बढ़िया फिल्म को देखने में इतनी देर क्यों लगायी.....लेकिन दोस्तों सच मानिये फिल्म को देखने के बाद मेरे मन में एक भी ऐसा ख्याल नहीं आया...यह ज़रूर समझ गया कि इडियट बन गया हूँ...... एक साधारण सी कहानी...साधारण सा कथ...

भोजपुरी एक पूरी संस्कृति है......

देश के पहले भोजपुरी न्यूज़ चैनल में काम करते हुए एक साल से अधिक का समय बीत चुका है....इस दौरान मैंने इस भाषा को बेहद करीब से देखने कि कोशिश भर कि है..साथ ही यह भी जान गया कि यह ना सिर्फ उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में प्रमुखता से बोली जाने वाली एक मीठी बोली है बल्कि इस भाषा के इर्द गिर्द एक पूरी संस्कृति ही लिपटी है.....ख़ास बात यह है कि इस चैनल में ना सिर्फ उत्तर प्रदेश कि भोजपुरी बल्कि बिहार और झारखण्ड कि मैथली, छोटा नागपुरी, अंगिका जैसी भाषायों को भी जगह दी जाती है....यह अपने आप में एक नया और मेरी समझ से अच्छा प्रयोग है..इस चैनल ने उत्तर प्रदेश, बिहार , झारखण्ड जैसे इलाकों के लोगों को उनकी ही भाषा में उनसे जुडी ख़बरें दिखायीं हैं....एक सबसे बड़ी बात जो शायद इन इलाके के लोगों को बेहद अच्छी लगेगी वोह है ख़बरों को प्रोफाइल के नजरिये से ना देखने कि आज़ादी....अक्सर ऐसा होता है कि हिंदी भाषी न्यूज़ चैनल्स पर इन इलाकों कि दास्ताँ बयां करने वाली ख़बरें प्रोफाइल के अभाव में गिर जाती हैं.....लेकिन हमार टीवी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड कि जमीं से जुडी ख़बरें दिखा रहा है.....गाँव गिराव कि ख़बरें ...

आप सब भी सोचिये................

पिछले कुछ सालों में पत्रकारिता में जिन बदलावों को देखा उन्हें अब महसूस कर रहा हूँ....प्रिंट से लगायत इलेक्ट्रोनिक तक अब तस्वीर बदल रही है....जब मैं मॉस कॉम कि डिग्री लेकर निकला था तो लगता था कि बहुत बड़ा तीर मार लिया है...लेकिन बाद में समझ में आया कि जुगाड़ डिग्री के अभाव में सारी योग्यता बेमानी होती है.....पत्रकारिता कि डिग्री हाथ में थी और पैर नॉएडा के सेक्टर १६ कि सड़कों पर....इंडिया टीवी से लेकर जी न्यूज़ तक रिज्यूमे सिक्यूरिटी गार्ड को पकड़ा कर लौटता रहा.....शीशे कि बड़ी बड़ी खिडकियों से देख कर देश के गरीब लोगों कि तस्वीर दिखाने वाली इमारतों से जब कोई निकलता तो सोचता कि काश इसकी नज़र मुझ पर पड़ जाती तो मैं भी स्टार रिपोर्टर हो जाता...लेकिन इस सब के बीच कहीं कोई पराड़कर नहीं दिखा....काम काज के लिहाज से एक छोटे अखबार में जब उठने बैठने लगा तो कुछ आड़ी तिरछी लाइने भी खीचने लगा.....लेकिन जम नहीं सका लिहाजा वापस बनारस आ गया...लेकिन बनारस से ले कर दिल्ली तक चीज़ें साफ़ समझ में आने लगी....ख़बरों को जनमानस कि उपयोगिता के हिसाब से नहीं बल्कि प्रोफाइल के हिसाब से देखा जा रहा है....भारतीय मीडि...

बस बीत गया साल......

पूरा एक साल बीत गया....क्या नया पाया यह तो नहीं बता सकता लेकिन हाँ इतना ज़रूर है कि खोया बहुत कुछ...भले खोने वाली चीज़ों कि संख्या कम हो लेकिन दर्द बहुत है...और जो चीजें पाई उनकी तुलना में यह अधिक मायने रखती है.....यही ज़िन्दगी है इसे देखना हो तो नज़रिया सड़क पर चलते लोगों को गिनने के नजरिये से अलग रखना पड़ता है.....खैर छोडिये ....देश के सबसे पहले भोजपुरी न्यूज़ चैनल हमार टीवी में काम करते हुए एक साल से अधिक हो गएँ हैं....जिस भाषा को रोज बोलता था.... सुनता था उसे खबर के नजरिये से देख रहा हूँ....रोज़ कुछ नया सिखा...लेकिन ना जाने क्यों साल के अंत में लगता है कि साल बस यू ही गुज़र गया......डे प्लान, फ़ील्ड रिपोर्ट, लाइव, एंकर यही रहा.....अपने लिए सोचने क मानो वक़्त ही नहीं मिला....सुबह सात बजे से लेकर रात कि दस बजे तक बस बाईट और पैकज में समय गुज़र गया और इस सब के बाद भी यही दर मन में रहा कि कहीं मंदी के दौर में मिली नौकरी चली ना जाये......इस बात क भी गिला कम ही रहा कि आप जिन लोगों से काम और योग्यता में कम नहीं हैं लेकिन सेलेरी में कम हैं.....यही एक नौकरी पेशा आदमी कि आदर्श ज़िन्दगी है........

“थ्री ईडियट्स” में आमिर खान है कहाँ?

जीनियस जीनियस होता है... उसके जरिये या उसमें अदाकारी का पुट खोजना बेवकूफी होती है। शायद इसीलिये थ्री ईडियट्स आमिर खान के होते हुये भी आमिर खान की फिल्म नहीं है। थ्री ईडियट्स पूरी तरह राजू हिराणी की फिल्म है। वही राजू जिन्होने मुन्नाभाई एमबीबीएम के जरीये पारंपरिक मेडिकल शिक्षा के अमानवीयपन पर बेहद सरलता से अंगुली उठायी। यही सरलता वह थ्री ईडियट्स में इंजीनियरिंग की शिक्षा के मशीनीकरण को लेकर बताते हुये प्रयोग-दर-प्रयोग समझाते जाते हैं। राजू हिराणी नागपुर के हैं और नागपुर शहर में नागपुर के दर्शको के बीच बैठ कर फिल्म देखते वक्त इसका एहसास भी होता है कि थ्री ईडियट्स में चाहे रेंचो की भूमिका में आमिर खान जिनियस हैं, लेकिन सिल्वर स्क्रिन के पर्दे के पीछे किसी कैनवस पर अपने ब्रश से पेंटिंग की तरह हर चरित्र को उकेरते राजू हिराणी ही असल जिनियस हैं। यह नजरिया दिल्ली या मुबंई में नहीं आ सकता। नागपुर के वर्डी क्षेत्र में सिनेमा हाल सिनेमैक्स में फिल्म रिलिज के दूसरे दिन रात के आखरी शो में पहली कतार में बैठकर थ्री इडियट्स देखने के दौरान पहली बार महसूस किया कि आमिर खान का जादू या उनका प्रचार चाहे दर्...

आडवाणी युग के बाद की भाजपा

नागपुर में पहली बार सीमेंट की सड़क 1995 में बनी तो रिक्शे वालों ने आंदोलन छेड़ दिया । रिक्शे वालों का कहना था कि नागपुर में जितनी गर्मी पड़ती है उससे सीमेंट की सड़क में टायर चलते नहीं हैं। लेकिन कार वाले खुश हो गये कि अब गड्ढ़े में हिचकोले नहीं खाने होंगे। बरसात में अंदाज रहेगा कि सड़क अपनी है, परायी हुई नहीं है। आखिरकार रिक्शे वाले आंदोलन कर थक गये तो फिर पुराने नागपुर में संघ मुख्यालय के बाहर सीमेंट की सड़क बनाने की तैयारी शुरु हो गयी, जहां ज्यादा रिक्शे ही चलते हैं। इस बार आंदोलन हुआ नहीं। और फिर सीमेंट की सड़क बनाने का सिलसिला समूचे महाराष्ट्र में शुरु हुआ। सीमेंट की यह सड़क और कोई नहीं बल्कि भाजपा के अध्यक्ष पद को संभालने जा रहे नीतिन गडकरी ही बनवा रहे थे, जो उस वक्त महाराष्ट्र के पीडब्ल्‍यूडी मंत्री थे। कुछ इसी तरह की सड़क भाजपा के भीतर संघ बनवाना चाहता है और उसका विरोध दिल्ली की आडवाणी चौकड़ी करेगी, लेकिन भविष्य में कहा जायेगा कि नागपुर के गडकरी तब भाजपा अध्यक्ष थे। और उनके पीछे नागपुर के ही सरसंघचालक भागवत का हाथ था। असल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गडकरी के जरिये जो राजनीतिक प्...

"20 साल पहले राजीव गांधी का अपहरण करना चाहते थे नक्सली और 20 साल बाद मनमोहन सिंह के अपहरण की जरुरत नहीं समझते माओवादी

ठीक बीस साल पहले 1989 नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव सीतारमैय्या से जब यह सवाल किया गया था कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का भी आपहरण कर लेंगे । जवाब मिला था कि जरुरत पड़ी और परिस्थितियां अनुकूल हुईं तो जरुर करना चाहेंगे। यह सवाल 1987 में आंध्रप्रदेश के सात विधायकों के अपहरण के बाद पूछा गया था । और बीस साल बाद जब बंगाल के एक पुलिसकर्मी का अपहरण कर उसपर पीओडब्ल्यू यानी प्रिजनर ऑफ वार लिखकर रिहा किया गया...तो अपहरण करने वाले सीपीआई माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव से मैंने यही सवाल पूछा कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपहरण कर लेंगे। जवाब मिला बिलकुल नहीं। इसकी जरुरत है नहीं और परिस्थितियां ऐसी हैं कि प्रधानमंत्री की नीतियों से ही हमारा सीधा टकराव देखा जाने लगा है तो जनता खुद तय करेगी, हमें पहल करने की जरुरत नही है। बीस साल के दौर में राजनीतिक तौर पर नक्सलियों में कितना बड़ा परिवर्तन आया है, यह जवाब उसका बिंब भर है। लेकिन इन बीस वर्षो में राजनीतिक तौर पर नक्सली कितना बदले है और उनकी राजनीत...

विकल्प देते देते प्रधानमंत्री विकल्प क्यों तालाश रहे हैं

विकल्प देते देते प्रधानमंत्री विकल्प क्यों तालाश रहे हैं Posted: 10 Nov 2009 10:45 PM PST नक्सलियों के हिमायतियों ने भी ग्रामीण-आदिवासियों के विकास का कोई वैकल्पिक समाधान नहीं दिया है। यह बात और किसी ने नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कही है। दिल्ली में आदिवासियों के मसले पर जुटे राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को विकास और कल्याण का पाठ पढ़ाते हुये पहली बार प्रधानमंत्री फिसले और माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई का फरमान सुनाने वाले वित्त मंत्री की बनायी लीक छोड़ते हुये उन्होंने आदिवासियों के सवाल पर सरकार को घेरने वाले और माओवादियो के खिलाफ सरकार की कार्रवाई का विरोध करने वालों पर निशाना साधते हुये कहा कि आदिवासियों के लिये वैकल्पिक अर्थव्यवस्था या सामाजिक लीक किस तरह की होनी चाहिये इसे भी तो कोई सुझाये। जाहिर है, इस वक्तव्य को आसानी से पचाना मुश्किल है क्योंकि आदिवासियो के लेकर बीते साठ वर्षों में हर सरकार दावा करती रही है कि उसकी समझ आदिवासियो को लेकर ना सिर्फ संवेदनशील है बल्कि जो नीतियां वह बना रही है, उससे आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ जायेंगे । नेहरु का पहला प्रया...