कहो तो ऐ समय तुम क्यों हुए इतने अधीर तुम तो क्षण क्षण देखते हो ना परकोटे से भविष्य को मैं भी तो देख रहा हूं लिए तुम्हारी दृष्टि संजय तो नहीं हां यह कोई महाभारत भी तो नहीं फिर भी जीवन के कुरुक्षेत्र में मैं चक्रव्यूह में घिरा हूं अठ्ठाहस न करो विकल वेदना का उपहास न करो गर्भस्थ ज्ञान नहीं तो क्या अभिमन्यु सा द्वार तो खुलते और बंद होते रहते हैं मोह और मोक्ष से परे होते हैं उर की विह्वलता मार्ग प्रशस्त करती है युद्ध की व्याकुलता ही जीत का हर्ष करती है जीवन व्योम का तल नहीं है स्पंदनों का धरातल नहीं है आलम्ब है अविलम्ब है तुम पर आवृत है तुम से ही निवृत है वंदन और वरण की चाह में कब कहां कोई अश्रु छलका स्पर्श हुआ तो होगा तुमको भी बोलो अलका अभिसिंचित मन का संकल्प पढ़ लो हे समय अधीरता छोड़ दो मेरी दृष्टि का भविष्य तुम गढ़ लो।
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर