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You the Indian dog

You the Indian dog, मेरे लिए यही संबोधन था उस व्यक्ति का फेसबुक पर कश्मीर पर चर्चा के दौरान. मई हैरान था, जहाँ तक मुझे पता था, ये कहने वाला एक हिन्दुस्तानी( कश्मीरी) था. बात चल रही थी कश्मीर में उछाले जा रहे पत्थरों की तभी एकायक इस विमर्ष में जगह बना ली इस्लाम ने. मैं अकेला था इस बात को कहने वाला कि कश्मीर समस्या का हल पत्थरों से नहीं हो सकता और कई थे इस मत के पोषक की अब तो इस जन्नत को पत्थरों के सहारे ही बचाया जा सकता है... कश्मीर के हालात पर मुझ जैसे किसी नौसिखिया पत्रकार को कुछ भी लिखने का अधिकार बुद्धजीवियों की और से नहीं दिया गया है लेकिन मै ये दुस्साहस कर रहा हूँ. भारत का कोई भी नागरिक कश्मीर को अपने दिल में रखता है. देश का आम नागरिक जो किसी पार्टी विशेष से सरोकार नहीं रखता हो या कश्मीर के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना से ग्रसित न हो(रखने को कई लोग तो बिहार के प्रति भी दुर्भावना रखते हैं) वो यही कहेगा की कश्मीर हमारे देश का ताज है. आज आखिर ऐसा क्या हो गया की लगभग एक अरब जनता की भावना पर घाटी के कुछ लाख लोगों के पत्थर भारी पड़ गए. सन १९४७ में मिली आज़ादी के बाद स

पाकिस्तान जिंदाबाद

आपको ये शीर्षक कुछ अजीब लग सकता है. आखिर लगे भी क्यों ना, साल में महज दो बार आपको याद आता है कि आज आप स्वतंत्र हैं, आज़ाद मुल्क में रहते हैं और इस आज़ादी को पाने के लिए कुछ लोगों ने कुर्बानी दी थी........१५ अगस्त और २६ जनवरी ना आये तो आप को याद ही ना आये कि आज आप जिस खुली हवा में सांस ले रहें हैं उसके लिए कईयों कि साँसे बंद कर दी गयीं हैं. वैसे आप भी अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं इसमें कोई दो राय नहीं.....साल में एक एक बार आने वाली इन दो तारीखों पर आप फिल्मी गीत बजाते हैं....बच्चों का शौक पूरा करने के लिए २ रूपये में तीन रंगों में रंगा हुआ कागज का एक टुकड़ा खरीदते हैं.....कई दिनों बाद अपने कुछ ख़ास रिश्तेदारों से मिलने जाते हैं, थोड़ी देर आराम करते हैं, शाम को किसी बड़े से मॉल में शॉपिंग करते हैं, बाहर खाना खाते हैं और घर आकर सो जाते हैं. अब भला इससे बेहतर दिनचर्या क्या हो सकती है? अब ऐसे में कोई आपको याद दिलाये कि आज पंद्रह अगस्त है तो आप उसपर नाराज़ तो होंगे ही. अब वो आपका सामान्य ज्ञान जांच रहा है...ऐसे हालात फिलवक्त हर युवा भारतीय के हैं...उन्हें पूरे साल याद नहीं रहता कि वो ए

गुरु, ई मीडिया वाले त.......

गुरु ई मीडिया वाले त पगला गैयल हववन....धोनिया के बिआयेह का समाचार कल रतिए से पेलले हववन और सबेरे तक वही दिखावत हववन...जब तक एकरे एक दू ठे बच्चा ना पैदा हो जैईहें लगत हव तब तक दिखवाते रहियें....इनकी माँ कि ........... यह वो सहज प्रतिक्रिया थी जो मुझे अपने शहर बनारस में एक चाय की दुकान पर चुस्कियों के बीच सुनायी दी थी..यकीन जानिए मैंने बिल्कुल भी इस बात का खुलासा वहां नहीं किया था कि मैं भी इसी खेत में पिछले पांच सालों से 'उखाड़' रहा हूँ.....अगर मेरे मुहं से ये तथ्य गलती से भी निकल कर बाहर आ गया होता तो आप समझ सकते हैं कि मेरी बारे में वहां क्या क्या कहा जाता? वैसे एक बात जगजाहिर है कि बनारसी पैदा होते ही बुद्धजीवियों की कोटि में आ खड़े होते हैं....नुक्कड़ की चाय और पान की दुकाने इन बुद्धजीवियों के पाए जाने का केंद्र होती हैं और अगर आप उस दुकान के इर्द गिर्द बहने वाली हवा के विपरीत जाते हैं तो आप से बड़ा बेवकूफ कोई नहीं होगा....हाँ अगर आपको अपनी बात कहने का बहुत शौक है तो बनारसी अंदाज़ में कहिये, शायद कोई सुन भी ले..वरना पढ़े लिखे लोगों की तरह तथ्यात्मक ज्ञान देने लेगे तो आप लौ

क्योंकि ख़्वाब देखने का कोई वक़्त नहीं होता.....

क्या सपने देखने के लिए भी कोई वक़्त तय किया जा सकता है....सोचता हूँ लोग क्यों कहते हैं कि ये दिन में सपने देखता है? क्या सपने महज रातों में देखे जाने चाहिए? क्या सपने देखने के लिए जगह भी ठीक ठाक होनी चाहिए? कहीं भी कभी भी सपने देखने में क्या बुराई है? पता नहीं लेकिन जब से सपने देखने शुरू किया है तभी से यह सुनता रहा हूँ कि सपने देखने का एक वक़्त होता है...हर समय सपने नहीं देखे जाते...मुझे लगता है कि ये बातें तब कहीं गयी होंगी जब लोग किसी ख़ास समय पर सपने देखते होंगे और एक मुख़्तसर वक़्त उन्हें हकीकत में बदलने के लिए मुक़र्रर करते होंगे....लेकिन पवन से भी तेज इस मस्तिष्क में एक सवाल यहाँ और आता है कि क्या उनके सपने इतने छोटे हुआ करते थे कि किसी ख़ास वक़्त में देखे जाएँ और किसी ख़ास समय में उन्हें पूरा कर लिया जाये....और अगर पूरे नहीं हो पाए तो क्या? सपने ही नहीं देखते थे....? एक और सवाल मन में आ जाता है कि वो सपने कब देखते होंगे? जहाँ तक मुझे पता चला है वो वक़्त रात का था....लीजिये अब एक सवाल और आ गया मन में कि लोग रात को ही सपने क्यों देखते थे? क्या दिन में किसी का डर था

गाँधी को समझे अरुंधती..............

क्या आपको याद है कि वर्ष २००४ में सिडनी शांति पुरस्कार किसे मिला था? नहीं याद है तो हम याद दिला देते हैं ..ये पुरस्कार मिला था अरुंधती रॉय को....कितनी अजीब बात है ना! कभी अपने अहिंसात्मक कार्यों के लिए इतने बड़े सम्मान से नवाजे जाने वाली महिला आज उसी अहिंसा को नौटंकी के समकक्ष रखने पर तुली है.....मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान अरुंधती रॉय ने कहा था कि 'गांधीवाद को दर्शकों की ज़रुरत होती है'...ये एक पंक्ति ही काफी है कि हम अरुंधती रॉय की मनोदशा के बारे में समझ सके....अरुंधती रॉय के गाँधी के विचारों के प्रति क्या नजरिया है ये भी आसानी से समझा जा सकता है....जिस तरीके से अरुंधती रॉय ने मावोवादियों के समर्थन में अपने सुर अलापे हैं उसका निहितार्थ देश की वर्तमान राजनीतिक और सामजिक व्यवस्था से परे है..... आज देश में आतंरिक सुरक्षा को लेकर जो सबसे बड़ा खतरा है वो है नक्सालियों और मावोवादियों से और इस बात को आम आदमी से लेकर ख़ास तक जानता है तो क्या इसे अरुंधती रॉय नहीं समझ रही हैं....दंतेवाडा में सुरक्षा बलों पर हमले के बाद जिस तरीके से झारग्राम में ट्रेन को नि

बंधे धागे खोल दो....

ना जाने किस पीर की दरगाह पर कुछ कच्चे धागे बांध आया था मैं किस वाली के दरबार में हथेलियाँ जोड़ मन्नत मांगी थी मैंने गुलाबों की चादर से आती खुशबू और जलती अगरबत्तियों के धुएं के बीच कुछ बुदबुदाया था मैंने किसी मंदिर की चौखट पर सिर झुकाया था मैंने हाथों से घण्टियों को हिलाकर अपने ही इर्द गिर्द घूम कर कुछ तो मनाया था मैंने तपती धूप में शायद किसी साये की आस की थी मैंने या फिर तेज़ बारिश में ठौर की तलाश की थी मैंने या कभी यूँ ही सुनसान राहों पर चलते हुए किसी साथी की ज़रुरत महसूस हुयी थी तभी तो मुझे ' तुम ' मिले हो शायद अब वक़्त आ गया है दरगाह पर बंधे धागों को खोलने का ...............

शुक्र है! ये कौम मुर्दा नहीं....

देश में लोकतंत्र बेहद मजबूत हो गया है लेकिन लोगों की बातें इस तंत्र में नहीं सुनी जाती....लोग बोलते बोलते थक चुके हैं और अब तो मुर्दई ख़ामोशी ओढ़ कर चुप बैठे हैं.....लोकतंत्र का उत्सव मनाया जाता है लेकिन शवों के साथ....कौम सांस लेती तो है लेकिन है मुर्दा...ऐसे में तसल्ली देती है एक मुहिम...अपने अधिकारों की भीख मांग- मांग कर थक चुके बच्चों ने अब वादाई कफ़न उतार दिया है और एक जिंदा कौम की तरह इंतज़ार नहीं करना चाहते....अब वो अपनी राह खुद बना रहें हैं...मंजिलें उन्हें मालूम है और सहारा उन्हें चाहिए नहीं......मैं बात कर रहा हूँ वाराणसी में बनाई गयी दुनिया कि पहली और अभी तक एकमात्र निर्वाचित बाल संसद की.... ये बाल संसद समाज के उस तबके के बच्चों की आवाज बुलंद कर रही है जहाँ तक किसी भी सरकार की योजनायें अपनी पहुँच नहीं बना पाती....इस संसद का गठन दो वर्षों पूर्व वाराणसी की एक स्वयं सेवी संस्था विशाल भारत संस्थान ने किया था ......हालाँकि अब ये संसद अपने तरीके से काम कर रही है...विशाल भारत संस्थान मुख्य रूप से समाज के गरीब तबके के बच्चों के लिए काम करती है...कूड़ा बीनने वाले और गरीब

सर, कोई जुगाड़ है ?

देश में मानसून का इंतज़ार हो रहा है..सब कह रहें हैं की मानसून इस बार अच्छा आएगा, सब इसलिए कह रहें हैं क्योंकि मौसम विभाग कह रहा है... वैसे मौसम विभाग गाहे बगाहे यह भी कह देता है की हो सकता है की कुछ गड़बड़ हो जाये...खैर, भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों पर यकीन करना किसी कचहरी में बैठे तोता गुरु की बातो पर भरोसा करने सरीखा ही है.....वैसे हर साल मानसून में एक और बारिश भी होती है वह है पत्रकारों की बारिश.....हर साल देश के विश्विद्यालयों से सैंकड़ो पत्रकार निकलते हैं( मैं भी कभी इसी तरह निकला था) बारिश के मौसम में निकलते हैं लिहाजा इनमे से कुछ बरसाती मेढ़क की तरह होते है.... जबसे देश में मीडिया ने अपने पाँव औरों की चादर में डालने शुरू किये तब से विश्विद्यालयों में हर साल ये बारिश अच्छी होती है...सबसे बड़ी बात की इसमें मौसम विभाग की एक नहीं सुनी जाती.....वैसे आप अंदाज़ लगा सकते हैं की अगर हर साल सैंकड़ो की संख्या में पत्रकार निकलते हैं तो देश का लोकतंत्र कितना मजबूत हो रहा होगा लेकिन आपको यहीं रोकता हूँ ....ये ज़रूरी नहीं है की पत्रकार बन जाने के बाद कोई पत्रकर

भाग जाओ, नक्सली आ रहें हैं......

१९ मई को राहुल गाँधी की उत्तर प्रदेश के अहरौरा में सभा चल रही थी..उसी समय मेरे एक पत्रकार मित्र ने फ़ोन किया और कहा कि देश का पर्यटन मंत्री आपके करीब पहुंचा है आप वहां है कि नहीं ? मैंने राहुल गाँधी के लिए यह संबोधन पहली बार सुना था...मुझे क्षण भर में ही विश्वास हो गया कि मेरा कमजोर राजनीतिक ज्ञान अब शुन्य हो चला है...मैंने अपने मित्र से पूछा कि भाई यह राहुल गाँधी ने पर्यटन मंत्रालय कब संभाला? सवाल का अंत हुआ ही था कि जवाब शुरू हो गया मानो मित्र महोदय सवाल के लिए पहले ही से तैयार थे....खैर एक अखबार में कार्यकारी संपादक का पद संभाल रहे मित्र ने बताया कि उन्होंने राहुल गाँधी का यह पद स्वयं सृजन किया है...क्योंकि राहुल गाँधी पूरे देश के पर्यटन पर ही रहते हैं....लिहाजा उनके लिए इससे अच्छा मंत्रालय और क्या हो सकता है....मैं मित्र के तर्क से सहमत हो रहा था...अब तो मैं मित्र की बात आगे बढा रहा था..लगे हाथ मैंने राहुल को पर्यटन मंत्री नहीं बल्कि स्वयंभू पर्यटन मंत्री का दर्जा दे दिया.... वैसे मेरी इस बात से हाथ का साथ देने वाले खुश नहीं होंगे लेकिन कमल और हाथी के सवार

जिंदा कौम का इंतज़ार .....

आखिर किस आधार पर बात हो माओवादियों से ? क्या बसों पर हमले और ट्रेन्स पर हमले को लेकर बातचीत होगी ? पिछले दिनों जब प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे उस समय कहीं से भी नहीं लगा था कि केंद्र सरकार आतंरिक सुरक्षा के मामले में कोई बड़ा कदम उठाने जा रही है ... पश्चिमी मिदनापुर के जिस इलाके में यह हादसा हुआ है उस ट्रैक को पिछले छह महीने के भीतर माओवादियों ने कई बार निशाना बनाया....कभी देश के इतिहास में पहली बार किसी ट्रेन का अपहरण किया तो कभी चलती ट्रेन पर गोलियां बरसाईं...और अब यह करतूत...क्या सरकार को इस बात को मान चुकी है कि बातचीत होती रहे खून खराबा तो चलता ही रहेगा...आखिर कौन सी बातचीत हो रही है....? क्या किया जा रहा है?....नक्सल और माओवाद जैसी समस्या से निबटने में सरकार का कोई भी कदम क्यों नहीं निर्णायक साबित हो रहा है.....पश्चिमी मिदनापुर में हुआ रेल हादसा साफ़ बता रहा है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार पूरी तरह से देश में खतरे का घंटा बजा रहे इन वैचारिक आतंकवादियों के आगे घुटने ट