प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के चेयरमैन मार्कण्डेय काटजू का भारतीय मीडिया के संबंध में दिया गया बयान आजकल चर्चा में है। हैरानी इस बात की है कि जो लोग काटूज के न्यायाधीश के रूप में दिये गये फैसलों पर खुशी जताते थे आज उन्हीं में से कई लोग काटजू को गलत ठहरा रहे हैं। शायद सिर्फ इसलिये कि इस बार मार्कण्डेय काटजू ने उन्हीं लोगों को आईना देखने की नसीहत दे दी है। मुझे नहीं लगता है कि आईना देखने में कोई हर्ज है। आज भी प्रबल धारणा यही है कि आईना सच ही बताता है। ऐसे में भारतीय मीडिया इस अग्निपरीक्षा को स्वयं स्वीकार करे तो अच्छा होगा। भारत के लोकतंत्र की नींव में घुन तो बहुत पहले ही लग था लेकिन बात तब और बिगड़ी जब लोकतंत्र के चैथे स्तंभ पर काई लग गई। खबरों का आम जनता के प्रति कोई सरोकार नहीं रहा। खबरों के लिहाज से देश कई वर्गों में बंट गया। खबरों का भी प्रोफाइल होने लगा। किसी ग्रामीण महिला के साथ बलात्कार कोई मायने नहीं रखता बजाए इसके कि किसी नामचीन व्यक्ति ने तेज गति से गाड़ी चलाई हो। मानवीय दृष्टि से महिला के साथ बलात्कार की घटना अधिक महत्वपूर्ण है लेकिन प्रोफाइल के नजरिये से नामचीन व्यक्ति का त
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर